Saturday, June 8, 2013

नक्सलियों के शहरी नेटवर्क की टोह

पुलिस का खुफिया तंत्र नक्सलियों के शहरी नेटवर्क की टोह में जुट गया है। शहर के आउटर की पॉश कालोनियों और स्लम इलाकों पर इंटेलिजेंस की नजर है। कुछ विशेष इलाकों में संदिग्ध गतिविधि वालों की निगरानी की जा रही है। दरअसल, झीरम घाटी में कांग्रेसी काफिले पर हमले के बाद पैदा हुए हालात इशारा कर रहे हैं कि नक्सलियों ने एक बार फिर शहरों में नेटवर्क खड़ा कर लिया है।
शहरी नेटवर्क की मदद से ही जंगलों में गोला-बारूद और रसद पहुंच रहा है। खुफिया तंत्र को यह संकेत मिले हैं कि इस बार नक्सली केवल राजधानी में ही फोकस नहीं कर रहे हैं। उन्होंने राज्य के कई ऐसे छोटे-बड़े शहरों पर अपने कुरियर बनाए हैं, जहां से बस्तर तक सीधे पहुंच है। उन कुरियर की मदद से जंगलों में सामान पहुंचाया जा रहा है। खुफिया सूत्रों से संकेत मिलने के बाद पुलिस शहरी नेटवर्क का पता लगाने में जुट गई है।
शहर के आउटर और स्लम एरिया पर इसलिए नजर रखी जा रही है, क्योंकि अब तक नक्सली शहरों में अपने आपको सुरक्षित रखने के लिए इन्हीं इलाकों में पनाह लेते रहे हैं। अपने आपको पुलिस और खुफिया तंत्र की नजर से बचाने के लिए वे आउटर की कॉलोनियों में किराये का मकान लेकर रहना सेफ समझते हैं।
स्लम इलाकों को भी पुलिस से बचने के लिए सुरक्षित माना जाता है। आमतौर पर पॉश कालोनियों में रहने वालों पर किसी को शक नहीं होता। स्लम इलाके में हर दूसरे-तीसरे दिन कोई न कोई नया व्यक्ति आता-जाता रहता है, इसलिए वहां भीड़ में गुम होना आसान रहता है।
 ऐसे की जाती है डिलीवरी
नक्सलियों का कोई भी सामान सीधे नहीं जाता। इसके लिए पूरा चैनल बनाया जाता है। बड़े शहरों से पिस्टल, कट्टा, कारतूस और साहित्य राजधानी या किसी भी शहर में ट्रेन या बस से लाने के बाद यहां तक लाने वाले की जिम्मेदारी खत्म हो जाती है। शहर में नक्सलियों के लिए काम करने वाला उनका कुरियर किसी व्यस्त चौराहे पर खड़ा होकर इंतजार करता है।
माल की डिलीवरी लेने वाले और देने वाले एक-दूसरे को पहचानते नहीं हैं, ऐसी दशा में भीड़ में पहचानने के लिए कोड वर्क के मुताबिक काम करते हैं। डिलीवरी देने आए कुरियर के हाथ में कोई मैग्जीन या पेपर रखा होता है, डिलीवरी लेने आया नक्सली भी वही पेपर या मैग्जीन लेकर खड़ा रहता है। कई बार एक ही तरह का फल हाथ में रखकर एक-दूसरे की पहचान की जाती है।
 2007 में पहली बार फूटा नक्सली नेटवर्क
नक्सलियों का शहरी नेटवर्क वर्ष-2007 में फूटा था। राजनांदगांव के तत्कालीन एसपी वीके चौबे को कुछ इनपुट मिले। उन्होंने राजनांदगांव में नजर रखी। उसका लिंक राजधानी में होने के संकेत मिले। उनसे सूचना मिलने के बाद राजधानी की पुलिस सक्रिय हुई। नक्सल मूवमेंट को लेकर अलर्ट होने से नाकेबंदी मजबूत हो गई। उसके बाद महादेवघाट पर 22 जनवरी 2008 नक्सलियों का वायरलेस सेट और कट्टे का जखीरा मिला। भारी मात्रा में कारतूस भी मिले। सामान दो बड़े बैग में रखा था। एक वाहन से लाने के बाद उसे महादेवघाट चौराहे पर रोड के किनारे छोड़ दिया गया था। वहां से सामान बस्तर पहुंचाना था। पुलिस को सूचना मिली व नक्सलियों का नेटवर्क उजागर हुआ।
 शहरी नेटवर्क फूटने पर कई हुए बेनकाब
जनवरी-2008 में डीडी नगर इलाके के महादेवघाट चौराहे से नक्सलियों का गोला-बारूद पकड़े जाने के बाद पुलिस ने शहरी नेटवर्क का पर्दाफाश किया। एक-एक कर कई सफेदपोश बेनकाब हुए। उनमें नक्सलियों को गोला-बारूद पहुंचाने से लेकर उनका साहित्य बांटने वाले तक शामिल थे। जनवरी-2008 में मोस्ट वांटेड गुड्सा उसेंडी की पत्नी मालती उर्फ शांति प्रिया को डीडी नगर से पकड़ा गया था। वह हथियारों की खेप एक गाड़ी से उतरवाकर दूसरी में पहुंचाने के लिए पहुंची थी। मालती उन दिनों सुपेला, भिलाई में किराये के मकान में रहती थी। मालती के बाद महाराष्ट्रीयन गल्र्स हॉस्टल से मीना को पकड़ा गया। वह मालती के साथ मिलकर शहरी नेटवर्क ऑपरेट कर रही थी।मालती और मीना से क्लू मिलने के बाद टिकरापारा के महावीर नगर से प्रफुल्ल झा और प्रतीक झा को पकड़ा गया। दोनों पिता-पुत्र हैं। प्रतीक ही नक्सलियों की पिस्टल और वायरलेस सेट बस्तर पहुंचाने वाला था। इनकी गिरफ्तारी के कुछ दिनों बाद सुरेंद्र कोसरे और मोतीलाल साहू को कुम्हारी से पकड़ा गया।दोनों नक्सलियों के कुरियर थे। जंगलों तक सामान पहुंचाने की जिम्मेदारी इन्हीं पर थी।कड़ी दर कड़ी पुलिस कुमार निषाद तक पहुंची। धमतरी में लेथ मशीन का काम करने वाला निषाद नक्सलियों का कुरियर निकला। पुलिस ने निषाद के साथ हनुमंत तारके को पकड़ा। बाद में उसने खुदकुशी कर ली।
--
विस्फोट में पाक तकनीक का इस्तेमाल कर रहे नक्सली   नक्सली अब बारूदी सुरंग विस्फोट के लिए पाकिस्तानी तकनीक का इस्तेमाल कर रहे हैं। यह बम किसी भी वायरलेस सेट की तरंगों से आपरेट हो जाता है। यदि उस स्थान से सुरक्षा बल या कोई अन्य भी किसी वायरलेस सेट के साथ गुजरा तो बम विस्फोट हो जाता है। छत्तीसगढ़ में पहली बार इस तरह के बम मिलने से सुरक्षा बलों की चिंता बड़ गई है। इसी 24 मई को जिला पुलिस और बीएसएफ के जवानों को दुर्गकोंदल के भुसकी गांव में पहली बार ऐसे आठ बम मिले। कांकेर जंगलवार कालेज के बम डिस्पोजल स्क्वायड ने इन्हें बाहर निकाल कर निष्क्रिय किया। स्क्वायड के प्लाटून कमांडर नरेंद्र सिंह ने बताया कि वहां नक्सलियों ने जमीन में ऐसे आठ बम लगाए थे, जिसमें से एक बम बाहर निकालते समय फट गया, जबकि सात बमों के सर्किट सही नहीं थे, इसलिए उनमें विस्फोट नहीं हुआ। उल्लेखनीय है कि सिंह जम्मू-कश्मीर में भी आतंकवादियों के खिलाफ मोर्चा संभाल चुके हैं। उन्होंने बताया कि रेडियो तरंगों के जरिए कंट्रोल की जाने वाली आईडी के जरिए बम विस्फोट करने की इस तकनीक का इस्तेमाल पाकिस्तान और अफगानिस्तान के आतंकी करते हैं। जंगलवार कालेज के ब्रिगेडियर बीके पोनवार का कहना है कि नक्सली विस्फोट में कई तरह की तकनीक का इस्तेमाल करते हैं। भुसकी में उन्होंने इस तकनीक के बम लगाए थे। हालांकि वे ज्यादातर विस्फोट में कमांड आईडी का इस्तेमाल करते हैं। जिसे एंबुश लगाकर दूर से उसे ऑपरेट करते हैं।
जवान के शव में भी लगा चुके हैं लाइट सेंसर बम
नक्सलियों ने झारखंड में भी कुछ माह पहले शहीद सीआरपीएफ के एक जवान के पेट में लाइट सेंसर बम लगा दिया था। इसका खुलासा जवान के शव के पोस्टमार्टम के दौरान हुआ था। इसकी खासियत यह थी कि बम किसी भी तरह के प्रकाश से एक्टिव हो सकता था। डॉक्टरों को शव का पेट सिला देखकर कुछ शक हुआ था। फिर घंटों की मेहनत के बाद उस बम को निष्क्रिय किया गया था।
कैसे काम करता है यह बम
नरेंद्र सिंह ने बताया कि इस तकनीक में  आतंकी या नक्सली पुलिस के वायरलेस की तरंगों के समान फ्रिक्वेंसी वाला सेंसर बम  के इलेक्ट्रानिक सर्किट में फिट कर देते हैं। वायरलेस की  तरंगों को कैच करके यह बम एक्टिव हो जाते हैं।

No comments:

Post a Comment