Saturday, December 29, 2012


kumar satish

Tuesday, December 25, 2012

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1847 में बनी ये तोपें, एक यहां और दूसरी लंदन में




तब आजादी की अलख भी नहीं जगी थी, पर यह तोप तैनात थीं। छत्तीसगढ़ के सरगुजा राजमहल में यह तोप गुलामी की बर्बर जंजीरों की याद दिलाती हैं। इन तोपों ने आजादी के मतवाले भी देखे और अत्याचार भी। सरगुजा के राजमहल में आज भी 1847 में इन तोपों को रखा गया है। इनका निर्माण कोलकाता के काशीपुर स्थित गन एंड शेल फैक्टरी में किया गया था। यहां से निर्मित ऐसे ही तोप लंदन के दी रॉयल हॉस्पिटल चेलसा में भी है। सरगुजा जिला मुख्यालय अंबिकापुर में राजमहल परिसर में दो तोप रखी हैं। इनमें 1847 का निर्मित होना लिखा गया है। तोप का निर्माण ब्रिटिश कंपनी ऑफ इंडिया द्वारा संचालित गन एंड शेल फैक्टरी में किया गया। इस कंपनी की शुरूवात 1801 में इसके लिए भूमि अधिग्रहण की कार्रवाई के साथ शुरू हुई थी। इस कंपनी ने भूमि अधिग्रहण के बाद 18 मार्च 1802 में निर्माण का काम शुरू कर दिया था। शुरूवात में यहां आयुध हथियारों की मरम्मत होती थी।इस कंपनी ने 2002 में दो सौ साल पूरे किए। इसे आईएसओ से सर्टिफिकेट भी मिला हुआ है। यहां 1840 में पीतल और लोहे दोनों से तोप का बनाना शुरू हुआ। राजमहल में रखी तोप 165 साल पुरानी हैं। हालांकि देखरेख के अभाव में इनमें जंग लग गई है। अब यहां से सेना को मीडियम कैलिबर तोप, भेदी तोप के लिए मोर्टार, राकेट लांचर समेत दूसरे हथियारों का निर्माण किया जाता है। अंग्रेजों द्वारा स्थापित यह कंपनी आज भी चल रही है।

Saturday, December 22, 2012

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satish pandey
रायपुर। यह देश की सबसे पुरानी नाट्यशाला है। इसका गौरव इसलिए भी अधिक है क्योंकि कालीदास की विख्यात रचना मेघदूतम ने यहीं आकार लिया था। महाकवि कालीदास ने जब उज्जियनी का परित्याग किया था तो यहीं आकर उन्होंने साहित्य की रचना की थी।  इसलिए ही इस जगह आज भी हर साल आषाढ़ के महीने में बादलों की पूजा की जाती है। देश में संभवत: यह अकेला स्थान है जहां कि बादलों की पूजा करने का रिवाज हर साल है। इस पूजा के दौरान देखने में आता है कि हर साल उस समय आसमान में काले-काले मेघ उमड़ आते हैं। छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से 280 किलोमीटर दूर है रामगढ़। अंबिकापुर-बिलासपुर मार्ग स्थित रामगढ़ के जंगल में तीन कमरों वाली देश की सबसे पुरानी नाटयशाला है। सीता बेंगरा गुफ़ा पत्थरों में ही गैलरीनुमा काट कर बनाई गयी है। यह 44.5 फिट लम्बी एवं 15 फिट चौड़ी है। दीवारें सीधी तथा प्रवेशद्वार गोलाकार है। इस द्वार की ऊंचाई 6 फिट है जो भीतर जाकर 4 फिट ही रह जाती हैं।नाट्यशाला को प्रतिध्वनि रहित करने के लिए दीवारों को छेद दिया है। यह इसलिए कि पात्रों के संवाद बोलने के समय उनकी आवाज दूर तक जाए। गुफ़ा तक जाने के लिए पहाड़ियों को काटकर पैड़ियाँ बनाई गयी हैं। नाट्यशाला(सीता बेंगरा) में प्रवेश करने के लिए दोनो तरफ़ पैड़ियाँ बनी हुई हैं। प्रवेश द्वार से नीचे पत्थर को सीधी रेखा में काटकर 3-4 इंच चौड़ी दो नालियाँ बनी हुई है।
इसे सीताबेंगरा के नाम से भी जाना जाता है। किवदंती है कि यहां वनवास काल में भगवान राम, लक्ष्मण और सीता के साथ पहुंचे थे। सरगुजा बोली में भेंगरा का अर्थ कमरा होता है। प्रवेश द्वार के समीप खम्बे गाड़ने के लिए छेद बनाए हैं तथा एक ओर श्रीराम के चरण चिन्ह अंकित हैं। कहते हैं कि ये चरण चिन्ह महाकवि कालीदास के समय भी थे। मेघदूत में रामगिरि पर सिद्धांगनाओं(अप्सराओं) की उपस्थिति तथा उसके रघुपति पदों से अंकित होने का उल्लेख भी मिलता है।नाट्यशाला को प्रतिध्वनि रहित करने के लिए दीवारों को छेद दिया है। यह इसलिए कि पात्रों के संवाद बोलने के समय उनकी आवाज दूर तक जाए। गुफ़ा तक जाने के लिए पहाड़ियों को काटकर पैड़ियाँ बनाई गयी हैं। नाट्यशाला(सीता बेंगरा) में प्रवेश करने के लिए दोनो तरफ़ पैड़ियाँ बनी हुई हैं। प्रवेश द्वार से नीचे पत्थर को सीधी रेखा में काटकर 3-4 इंच चौड़ी दो नालियाँ बनी हुई है।वरिष्ठ पुरातत्वेत्ता जीएल रायकवाड़ कहते हैं कि यहां मिले शिलालेख से पता चलता है कि सीताबेंगरा नामक गुफा ईसा पूर्व दूसरी-तीसरी सदी की है। देश में इतना पुराना और दूसरा नाटयशाला कहीं नहीं है। यहां उस समय क्षेत्रीय राजाओं द्वारा भजन कीर्तन और नाटक करवाए जाते रहे होंगे। 1906 में पूना से प्रकाशित श्री वी के परांजपे के शोधपरक व्यापक सर्वेक्षण के "ए फ़्रेश लाईन ऑफ़ मेघदूत" द्वारा अब यह सिद्ध हो गया कि रामगढ(सरगुजा) ही श्रीराम की वनवास स्थली एवं मेघदूत का प्रेरणास्रोत रामगिरी है।यहां आषाढ़ के महीने में मेघ की पूजा की जाती है। इसके लिए हर साल प्रशासन के सहयोग से कार्यक्रम का आयोजन होता है। मान्यता है कि रामगढ़ में ही कालीदास ने मेघदूतम की रचना की थी।गुफा के बाहर दो फीट चौड़ा गडढ़ा भी है जो सामने से पूरे गुफा को घेरता है। मान्यता है कि यह लक्ष्मण रेखा है तो इसके बाहर एक पांव का निशान भी है। इस गुफा के बाहर एक सुरंग है। इसे हथफोड़ सुरंग के नाम से जाना जाता है। इसकी लंबाई करीब 500 मीटर है।यहां पहाडी में भगवान राम, लक्ष्मण, सीता और हनुमान की 12-13वीं सदी की प्रतिमा भी है। यहां चैत नवरात्र के अवसर पर मेला लगता है तो गुफा को भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा संरक्षित किया गया है।रामगढ़ की पहाडी में चंदन गुफा भी है। यहां से लोग चंदन मिट्टी निकालते हैं और उसका उपयोग धार्मिक कार्यो में किया जाता है। इतिहासविद् कनिंघम रामगढ़ की पहाड़ियों को रामायण में वर्णित चित्रकूट मानते हैं।
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Tuesday, December 11, 2012



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छत्तीसगढ़ का एक राजा जो शेर मारने जाता था विदेश !
रायपुर। क्या आप जानते हैं दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा शिकारी कौन था ? हम आपको बताते हैं, दुनिया का सबसे बड़ा तीसरा शिकारी छत्तीसगढ़ से आता है। यह शिकारी कोई ऐसा-वैसा नहीं था, इनके नाम जो रिकॉर्ड दर्ज है उसे सुनकर आप दांतों तले उंगलियां दबा लेंगे। जी हां, इस शिकार ने एक दो नहीं पूरे 1100 शेरों का शिकार किया। छत्तीसगढ़ के सरगुजा जिला कभी सरगुजा स्टेट के नाम से जाना जाता था। यहां के महाराजा थे रामानुज शरण सिंह देव। इनकी वीरता की कहानियां पूरे संसार में मशहूर हैं, ग्यारह सौ शेरों के अलावा दो हजार लेपड्स और पैंथर मारने का भी रिकॉर्डउनके नाम पर है। रामानुज शरण सिंह देव उस समय के दुनिया में तीसरे नंबर के सबसे बड़े शिकारी माने जाते थे। सरगुजा जिले में रामानुज शरण सिंह देव का जन्म 1917 में हुआ था। वह बचपन से ही धीर-वीर थे। इन्होंने 1950 तक शिकार किया। ग्यारह सौ शेरों के अलावा दो हजार लेपड्स और पैंथर मारने का भी रिकॉर्डउनके नाम पर है। रामानुज शरण सिंह देव उस समय के दुनिया में तीसरे नंबर के सबसे बड़े शिकारी माने जाते थे।
सरगुजा के कई बुजुर्ग बताते हैं कि पचास के दशक में राजा जंगलों में जाकर शिकार करते थे। शिकार करने के लिए बकरे और दूसरे छोटे जानवरों का उपयोग किया जाता था। जब शेर इन्हें खाने में व्यस्त रहता था तब शिकार कर लिया जाता था।सरगुजा जिला मुख्यालय स्थित राज महल में अभी भी चीते और दूसरे वन्य जीवों के सिर दीवारों में लगाए गए हैं। इसमें राज परिवार का स्वामित्व है।
कुछ साल पहले तक महल की दीवारों पर शेर के भी सिर लगे हुए थे। अब उन्हें प्रदर्शनी से अलग रख सुरक्षित रख दिया गया है।दशहरा के समय महल में लगाए गए जानवरों के सिर और दूसरी प्राचीन वस्तुओं को देखने के लिए जनता यहां आज भी पहुंचती है, बाकी समय आम लोगों के लिए महल खुला नहीं रहता है। सरगुजा महाराजा के बारे में इंडिया वाइल्ड लाइफ हिस्ट्री नामक किताब में भी दी गई है। इसमें उनके शिकार का वर्णन है।1965 में दुनिया के तीसरे सबसे बड़े शिकारी ने इस दुनिया को अलविदा कह दिया।उन्होंने केवल भारत में ही शिकार नहीं किया, उनके शिकार करने की कला इतनी मशहूर थी कि इसके लिए वे साउथ अफ्रीका सहित कई देशों में भी गए।
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Sunday, December 9, 2012

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