Tuesday, June 4, 2013

बेलगाम `लाल आतंक`

नक्सलियों ने बीते दिनों छत्‍तीसगढ़ में जिस तरह कोहराम मचाया उससे पूरा देश सन्‍न रह गया। नक्‍सलियों के हौसले इस कदर बुलंद हैं कि वे सत्ता, शासन को लगातार चुनौती दे रहे हैं। गरीबों और आदिवासियों की मदद करने की आड़ में लाल आतंक का दायरा बढ़ता ही जा रहा है। बेलगाम होते जा रहे इस `लाल आतंक` पर लगाम लगाना अब बेहद जरूरी हो गया है। दिन-ब-दिन नक्‍सली देश के सामने एक गंभीर चुनौती पेश कर रहे हैं। आज जरूरत है ऐसी व्‍यवस्‍था के निर्माण की, जिससे नक्‍सल प्रभावित क्षेत्रों में नक्‍सलियों के `सामानांतर सरकार` के ताने-बाने को ध्‍वस्‍त किया जा सके। अर्द्धसैन्‍य बलों पर निरंतर हमले, दंतेवाड़ा जेल ब्रेक, सुकमा के तत्कालीन कलेक्टर एलेक्स जॉन पाल का अपहरण, फिर रिहाई और कांग्रेस की परिवर्तन यात्रा पर हुए हमले कई सवालों को भी जन्‍म दे रहे हैं। पश्चिम बंगाल के नक्‍सलबाड़ी से 60 के दशक में शुरू हुआ नक्‍सल आंदोलन आज छत्तीसगढ़, मध्‍य प्रदेश, बिहार, आंध्र प्रदेश, झारखंड, महाराष्ट्र, ओडिशा समेत कुल नौ राज्‍यों में फैला हुआ है। लाल आतंक ने देश के 160 जिलों को अपनी चपेट ले लिया है। इन चार-पांच दशकों में नक्‍सलियों ने अपने नेटवर्क का खासा विस्‍तार कर लिया और इनके संबंध आईएसआई से होने के भी संदेह हैं। उन्‍हें चीन से भी मदद मिलने की बातें यदा कदा सामने आती रहती हैं। इन हालातों में यदि हम नक्‍सलियों को लेकर थोड़ी भी लापरवाही और बरते तो आंतरिक मोर्चे पर कई समस्‍याओं का सामना करना पड़ेगा। बीते कुछ सालों में प. बंगाल, आंध्र प्रदेश व ओड़िसा में तो नक्सली हमलों पर कुछ काबू पाया जा सका है, लेकिन छत्तीसगढ़ में यह अभी भी गंभीर चुनौती बना हुआ है। नक्‍सलियों की बेजा मांगों को पूरी तरह‍ अनसुना करना नितांत जरूरी है। प्राय: वे मांग उठाते हैं कि ऑपरेशन ग्रीन हंट तुरंत बंद किया जाए, सुरक्षाबल वापस भेज दिए जाएं, सेना की तैनाती न हो, जेलो में बंद नक्‍सली नेता रिहा हों, उद्योगों के लिए प्राकृतिक संशाधनों को दोहन रोका जाए आदि। हालांकि इन मांगों से यह भी संकेत मिलता है कि हाल के कुछ सालों में प्रभावित क्षेत्र में नक्‍सलियों की कमर टूटी है। जरूरत है तो नक्‍सली हिंसा पर काबू पाने की मुहिम को और तेज करने की। नेताओं पर पहले भी नक्सली हमले होते रहे हैं, लेकिन इस बार बस्‍तर में इतनी बड़ी वारदात पहली बार हुई है। प्रदेश अध्यक्ष नंदकुमार पटेल, पूर्व सांसद महेंद्र कर्मा, पूर्व विधायक उदय मुदलियार सहित कई कार्यकर्ताओं की असामयिक मौत ने दहला दिया है। बस्तर क्षेत्र में परिवर्तन यात्रा से लौट रहे कांग्रेस के नेताओं एवं कार्यकर्ताओं के काफिले पर नक्सलियों ने जिस सुनियोजित तरीके से हमला किया, उससे कई सवाल भी खड़े हो रहे हैं। कुछ नेताओं ने घटना को लेकर कुछ बड़े सवाल भी उठाए हैं। कांग्रेस के नेताओं पर नक्सलियों का यह हमला ऐसे वक्त में हुआ है, जब कांग्रेस विधानसभा चुनाव की तैयारी में जुटी है। प्रदेश में कांग्रेस नेतृत्व का इस तरह से सफाया होने से कांग्रेसजन सदमे और दहशत में हैं। अब कांग्रेसियों के सामने सबसे बड़ी चुनौती है कि दोबारा नक्सली इलाकों में यात्रा का साहस कैसे जुटाएं। पूर्व नेता प्रतिपक्ष महेंद्र कर्मा अपनी जान की परवाह किए बगैर बीते कुछ माह से बस्तर में दौरा कर रहे थे। बस्तर के जंगलों में नक्सलियों के खिलाफ सिर्फ कर्मा ने ही अभी तक दहाड़ने की हिम्‍मत जुटाई थी। अब इस `टाइगर` के जाने के साथ ही बस्तर से नक्सल विरोधी आंदोलन (सलमा जुडूम) की कहानी का एक बड़ा अध्याय समाप्त हो गया। चर्चित आदिवासी नेता रहे कर्मा की चर्चा भी अब इतिहास बनकर रह जाएगी। उन्होंने जीवन भर बंदूकों और हिंसा के खिलाफ लड़ाई लड़ी, लेकिन उसी हिंसा के वह शिकार बन गए। महेंद्र कर्मा नक्सल निरोधी आंदोलन का सबसे बड़ा चेहरा बन गए। वह उन इलाकों से गुजरने से भी नहीं डरते थे, जो लाल आतंक के लिए कुख्यात था और नक्सलियों का गढ़ माना जाता था। कर्मा लाल आतंक के खिलाफत में लगे रहे और धीरे-धीरे नक्सलियों के सबसे बड़े दुश्मन बन गए। वर्षों से वह नक्सलियों की हिट लिस्ट में थे। बार-बार उन पर हमला होता रहा, मगर इस बार भाग्‍य ने उनका साथ नहीं दिया। परिवार और पार्टी से ऊपर उठकर भी उन्होंने नक्सली हिंसा का विरोध किया। मरते दम तक उन्होंने लाल आतंक का भरपूर विरोध किया। लाल सेना की दहशत के आगे बस्तर में हर कोई नतमस्तक हो गया, लेकिन महेंद्र कर्मा न झुके, न दबे। निडर होकर अपनी मुहिम में जुटे रहे। अंत में नक्सलियों की गोली ने उनकी मुहिम को विराम लगा दिया।

बस्तर को लाल आतंक से मुक्ति दिलाने वाले कर्मा के जैसा कोई वन मैन आर्मी अब दूर-दूर तक दिखाई नहीं देता। पिछले कुछ सालों में नक्सली रक्षात्मक हो चले थे। इस बात को लेकर नक्सलवादी बौखलाए और चिंतित भी थे। इसी बौखलाहट में उन्होंने छत्‍तीसगढ़ में इतने बड़े हत्याकांड को अंजाम दिया। इस तरह की वारदात फिर न हो, इसके लिए समुचित तरीके से शासन को कारगर रणनीति बनानी होगी। अन्‍यथा नक्‍सली हिंसा पर लगाम टेढ़ी खीर साबित होगी। हिंसा पर काबू पाने के उपाय के साथ साथ नक्‍सल प्रभावित क्षेत्रों में कल्‍याणकारी योजनाएं चलाकर वहां के लोगों को बहकावे में आने से भी रोकना होगा ताकि नक्‍सलियों का नेटवर्क कमजोर हो सके। हालांकि केंद्र सरकार अपने स्‍तर पर आदिवासी क्षेत्रों के कल्‍याण के लिए कई योजनाएं चला रही है। जरूरत है तो इन योजनाओं को पूर्ण रूप से जमीन पर क्रियान्वित करने की। केंद्र की ओर से कुछ समय पहले नक्सल प्रभावित तीन राज्यों में गवर्नेस एंड एक्सलरेटेड लाइवलीहुड्स सिक्योरिटी प्रोजेक्ट स्कीम (गोल्स) लागू करने का फैसला किया गया, जिसका मकसद आजीविका के अवसरों को तेजी से उपलब्ध कराने का है। इस स्‍कीम के जरिये नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में हिंसा पर लगाम लगाने का यह कारगर प्रयास होगा। गौर करने वाली बात यह है कि कोई भी योजना तभी सफल हो सकती हैं जब उन्‍हें लागू करने में पूरी ईमानदारी बरती जाए। यदि कोई लापरवाही सामने आती है तो उस पर तुरंत एक्‍शन लिया जाए। नक्‍सली हिंसा पर किसी तरह का राजनीतिक आरोप-प्रत्‍यारोप घातक साबित होगा। राजनेताओं को इस गंभीर समस्‍या पर संयम से काम लेना होगा। बेवजह की टिप्‍पणी असल मकसद की राह में बाधा ही बनेगी। नक्‍सलियों पर अंकुश लगाने के लिए जरूरी है कि केंद्र व राज्य सरकारें एक-दूसरे का पूरा सहयोग करें। जिक्र योग्‍य है कि नक्‍सली हिंसा का सिर्फ बंदूक के बल पर समूल नाश नहीं किया जा सकता है। ऐसे में यदि बातचीत का कोई मसला सामने आता है तो उस पर गहराई से गौर किया जाना चाहिए।

नक्‍सल आंदोलन ...
हाल के कुछ सालों में नक्सली हिंसा की समस्या अधिक गंभीर तरीके से उभरी है और यह देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए खासा मुश्किलें खड़ी कर रही है। पूरे मध्य भारत में नक्सल आंदोलन का विस्ता़र हो गया है और यह लाल गलियारे के नाम से चर्चित भी है। इस आंदोलन की शुरुआत एक विचारधारा के स्तर पर हुई थी। नक्सल हिंसा की घटनाएं पहले भी सामने आती थीं,पर इसका स्वरूप इतना विकराल नहीं था जितना आज है। आए दिन नक्सल प्रभावित राज्यों में कभी सुरक्षा बलों के जवानों तो कभी निर्दोष नागरिकों को मौत के घाट उतारे जाने की घटनाएं सामने आती रहती हैं। परंतु इस गंभीर समस्या का समुचित हल निकालने की ठोस कवायद आज तक अमल में नहीं लाई गई। यू कहें कि सरकार ने इस ओर कभी गंभीरता से देखा ही नहीं। जिसका परिणाम यह हुआ कि नक्सलवाद और पनपता गया और ग्रामीण क्षेत्रों में इसका खासा विस्तार हो गया।नक्सली अपने उद्देश्यों को साधने के लिए आदिवासियों के क्षेत्र और मुद्दों का सहारा ले रहे हैं। पर इसे फैलने से रोकने के लिए आज भी पर्याप्त कदम नहीं उठाए जा रहे हैं। झारखंड, छत्तीयसगढ़, ओडिसा, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र आदि राज्यों में माओवादी कैडरों ने इतनी गहरी जड़ें जमा ली हैं कि इसे सिर्फ सुरक्षा बलों के सहारे अभियान चलाकर पूरी तरह खत्म नहीं किया जा सकता है।जरूरत इस बात की है कि इन कैडरों को समाज की मुख्यधारा में वापस लाए जाने के लिए हर स्तर पर ठोस पहल की जाए। नक्सवल प्रभावित क्षेत्रों में अभाव, उपेक्षा, गरीबी का दंश झेल रहे लोगों के लिए सरकारी स्तर पर सहूलियतें मुहैया करवाया जाना प्राथमिकता सूची में शीर्ष पर होना चाहिए। यदि ऐसा नहीं किया जाता है तो समस्यांए खत्म होने की बजाय बढ़ती ही जाएगी। वैसे भी यह सरकारी तंत्र के लिए गले की फांस बन ही चुका है। हालांकि माओवादी कैडरों के लिए आत्म समर्पण की नई नीति अमल में लाई जा रही है,पर देखना यह होगा कि मुख्यधारा में इन कैडरों की वापसी की दिशा में यह कितना कारगर हो पाता है।इस नीति को कामयाब बनाने के लिए सार्थक सोच का होना भी बहुत जरूरी है। जब कोई माओवादी सरेंडर करता है तो लाजिमी है कि उसकी समाज की मुख्यधारा में वापसी हो रही है। पर इसे बनाए रखने के लिए हर उस शख्स को सरकारी स्तर पर वह सुविधाएं मिलनी चाहिए ताकि वह फिर माओवाद की विचारधारा के गिरफ्त में नहीं आ सके।नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में यदि कोई चीज सबसे कारगर हो सकती है तो वह है विकास। इलाकों में अभियान चलाकर विकास कार्यक्रमों पर जोर देना खासा जरूरी है। तभी हम नक्ससल विचारधारा से लोगों को दूर रखने में कुछ कामयाबी पा सकते हैं। आंतरिक सुरक्षा के मोर्चे पर जो चुनौतियां गंभीर तरीके से उभरी हैं, उनसे निपटने के लिए काफी अधिक प्रयास करने की दरकार है।बीते दिनों इस चर्चा ने जोर पकड़ लिया था कि आतंकवाद के मुकाबले नक्सलवाद ज्यादा बड़ा खतरा है। नक्सलवाद के रूप में आज ऐसे संगठनों से जूझना पड़ रहा है जो हिंसा के बल पर शासन और कानून तक को चुनौती दे रहे हैं। बीते दिनों नक्सलियों के खिलाफ प्रभावी अभियान चलाने एवं सीमावर्ती क्षेत्रों में आपसी समन्वय एवं सहयोग से सीमावर्ती क्षेत्रों को नक्सल मुक्त कराने को लेकर ठोस पहल की गई। परंतु इसके नतीजे कुछ खास सकारात्मक नजर नहीं आते। चूंकि माओवादी कैडर दिनोंदिन मजबूत होते जा रहे हैं। इस समस्याओ के निदान का एकमात्र विकल्प है इन कैडरों की मुख्याधारा में वापसी।माआवोदियों की मंशा शुरू से ही बंदूक के बल पर समानांतर सत्ता कायम करने की रही है और पिछड़े इलाकों में ऐसा करने में इन्हें कुछ हद तक कामयाबी भी मिली है। प्रभावित क्षेत्रों में इनके समर्थक भी कम नहीं हैं। विचाराधारा के स्तर पर इनकी सक्रियता ऐसी है कि लोग झांसे में आकर कैडरों से जुड़ते चले जाते हैं। इन हालातों में लोगों को इससे प्रभावित होने से रोकने के लिए और कदम उठाए जाने चाहिए। महज समस्या की थाह लेने भर से ही उसका निदान होने वाला नहीं है। सवाल यह है कि माओवाद के खतरे से निपटने के लिए किस स्तर पर और कितने सार्थक कदम उठाए जा रहे हैं। नक्सल ग्रस्त इलाकों की समस्याओं का समाधान कतई आसान नहीं होगा,पर इसके लिए सतत कार्यक्रम योजनाबद्ध तरीके से चलाना होगा।वैसे भी देश के तकरीबन साठ जिले नक्सलवाद की चपेट में हैं। नक्सोल प्रभावित राज्यों में उठाए जाने वाले सभी कदमों की जिम्मेदारी राज्य सरकार को भी लेनी चाहिए। नक्सलवाद से निपटने के लिए संयुक्त अभियान के अलावा राज्य अपने स्तर पर भी प्रयास करते हैं,परंतु यह नाकाफी साबित हो रही है। कहीं ऐसा तो नहीं है कि केंद्र के सीमित संसाधनों से नक्सलियों का हौसला और बढ़ रहा है। राज्यों को केंद्र की मदद पर्याप्त साबित नहीं हो रही है। सवाल यह भी खड़ा होता है कि यदि राज्य सरकारें माओवादी संगठनों से निपटने में सक्षम होतीं तो नक्सलवाद बेकाबू क्यों होता।नक्सलवाद को केवल कानून-व्यवस्था के नजरिए से देखना उचित नहीं है। इस समस्या से निपटने को विशेष प्रयास करने होंगे। खनिज एवं वन संपदा वाले आदिवासी इलाकों में नक्सलवाद की मूल वजह पिछड़ापन और विकास का अभाव है। नक्सल विचारधारा को माननेवाले लोकतंत्र, संवैधानिक मूल्यों, राजनीतिक व्यवस्था को नहीं मानते हैं। मौजूदा समय में माओवाद की समस्या दो तरीके से चुनौती पेश कर रही है। पहला विचारधारा के स्तर पर और दूसरा अपराध के स्तर पर जिसमें जबरन धन उगाही आदि शामिल है। आज नक्सली कई जगहों पर विकास योजनाओं में बाधा बनते हैं और इसके एवज में जबरन उगाही करते हैं। अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए वे हिंसक रास्ता अख्तियार कर रहे हैं। ऐसे में जरूरत है इन्हें मुख्यधारा में वापस लाने की। तब जाकर ही इस गंभीर समस्या से निपटने में मदद मिल पाएगी।माओवादियों के आत्मसमर्पण को लेकर केंद्र की ओर से जो नई नीति बनाई गई है,उसके उत्साहजनक परिणाम कुछ हद तक सामने आ सकते हैं। हिंसा छोड़ने की इच्छा रखने वाले नक्सलियों को समाज की मुख्यधारा से जोड़ने, उनके रोजगार की व्यवस्था करने और उन्हें आर्थिक मदद देने की पेशकश उन्हें हथियार डालने के लिए निश्चित तौर पर प्रेरित करेगी।माओवादी कैडरों का एक बड़ा वर्ग है, जो मुश्किल हालात से मुक्त होना चाहता है और हिंसा का रास्ता त्यागने की मंशा रखता है। हालांकि कई बार निर्णय नहीं ले पाने के कारण ये कैडर हथियार डालने से डरते हैं,लेकिन सरकार की नई आत्मसमर्पण नीति उसे अवश्य प्रेरित करेगी। इस नीति में आत्मसमर्पण करने वाले माओवादियों को अधिक आर्थिक मदद की पेशकश की गई है। उनके हथियार की किस्म के मुताबिक उन्हें राशि देने का भी प्रस्ताव है। साथ ही उन्हें पेशेवर प्रशिक्षण प्रदान कर समाज की मुख्यधारा से जोड़ने और अपने दम पर आजीविका कमाने के अवसर देने का प्रावधान है।माओवादियों को वार्ता के लिए तैयार करने में विफल रहने के बाद सरकार की तरफ से धनराशि बढ़ाने का कदम भी उठाया गया है। बीते दिनों कुछ ऐसी भी खबरें आई थीं कि माओवादियों में गुटबाजी के चलते भी कई कैडर अब अलग होना चाहते हैं। ऐसे में यह नीति उन अलग हो रहे कैडरों के लिए मुफीद साबित होगी।आत्मसमर्पण और पुनर्वास की नई नीति के तहत योग्य पाये जाने वाले कैडरों को पुनर्वास शिविर में रखा जाएगा और रोजगारपरक प्रशिक्षण दिया जाएगा। प्रशिक्षण के दौरान उन्हें चार हजार रुपये मिलेंगे जो तीन साल तक मिलते रहेंगे। इससे पहले की आत्मसमर्पण एवं पुनर्वास नीतियों में आत्मसमर्पण करने वाले नक्सली को डेढ़ लाख रुपये मिलते थे और मासिक मेहनताना दो से साढ़े तीन हजार रुपये के बीच था। नई नीति के तहत हथियार के साथ आत्मसमर्पण करने वाले माओवादी को हथियार के बदले रुपये तक मिल सकते हैं।राज्यों को भेजी गई नई नीति में कहा गया है कि वे आत्मसमर्पण करने वाले नक्सल कैडरों को अदालत में चल रहे मुकदमों में मदद के लिए कानूनी सहायता और वकील मुफ्त मुहैया कराएं। केंद्र का यह सुझाव भी है कि आत्मसमर्पण करने वाले नक्सलियों पर चल रहे मुकदमों की तेज कार्यवाही सुनिश्चित करने के लिए फास्ट ट्रैक अदालतों का गठन किया जाए। इन नीतियों का निश्चित तौर पर प्रतिफल सामने आएगा बशर्ते कि इसे सम्यक तरीके से लागू किया जाए। आपसी तालमेल और बेहतर कार्ययोजना ही माओवादियों को मुख्यलधारा में वापस लाने में कारगर होगा।
 

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