Wednesday, March 24, 2010

विकास की रोशनी बहुत धीरे पहुंच रही गांवों तक

गांवों के आगंन में विकास की बिजली गिरी
किसी ने कहा था गांव में भारत बसता है लेकिन गांवों की वर्तमान हालात काफी बदतर हो चली है। गांव वालों की जिंदगी की हकीकत स्वयं सरकार के आकंड़े बयां कर रहे है। ग्रामीण आबादी को अधिकतर बुनियादी सुविधाएं ही मयस्सर नहीं हैं। खुद सरकार का ही आंकड़ा कह रहा है कि 10 फीसदी ग्रामीण महज 400 रुपये के प्रति माह खर्च पर जिंदगी गुजार रही है। यह राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन (एनएसएसओ) की ओर से देश में घरेलू खर्चे की स्थिति पर जारी रिपोर्ट का आंकड़ा है। रिपोर्ट के मुताबिक आधी ग्रामीण आबादी कच्चे या अध-पक्के मकानों में रहने को विवश है। रिपोर्ट के आंकड़े साबित करते हैं कि आर्थिक विकास दर में काफी तेजी होने के बावजूद ग्रामीणों के जीवन स्तर में बहुत सुधार नहीं हो रहा है। 65 फीसदी ग्रामीणों के खर्चे राष्ट्रीय औसत से भी कम है। गांव वालों के खर्चे का 56 फीसदी हिस्सा खाने-पीने में ही चला जाता है। गांवों में अब भी 77 फीसदी परिवार खाना बनाने के लिए लकड़ी या उपले पर निर्भर हैं। एनएसएसओ ने वैसे तो यह रिपोर्ट वर्ष 2007-08 में किए गए सर्वेक्षण के आधार पर जारी की है। लेकिन इससे साफ पता चलता है कि सरकार की आर्थिक नीतियों का फायदा गांवों की सरहदों के भीतर दाखिल नहीं हो पा रहा है। यह अलग बात है कि तंबाकू और मांसाहार के मामले में ग्रामीण अपने शहरी भाइयों से आगे हैं। रिपोर्ट के मुताबिक 61 फीसदी ग्रामीण तंबाकू सेवन करते हैं जबकि शहरी क्षेत्र में यह आंकड़ा 36 फीसदी का है। ग्रामीण भारत के 62 फीसदी परिवारों ने 30 दिनों के अंतराल पर मांस, मछली या अंडे का सेवन किया है, जबकि केवल 59 फीसदी शहरी परिवार ही इस श्रेणी में आते हैं। सर्वेक्षण रिपोर्ट बताती है कि केवल दस फीसदी ग्रामीण आबादी ऐसी है, जिसका औसतन मासिक खर्च 1229 रुपये से ज्यादा है। शहरी क्षेत्रों में भी स्थितियों में बहुत अंतर नहीं है। दस फीसदी शहरी आबादी अभी भी महीने में केवल 567 रुपये खर्च करती है। ग्रामीण क्षेत्र की तुलना में शहरी आबादी के खर्चे का 40 फीसदी हिस्सा ही खाने-पीने पर जा रहा है। एनएसएसओ के आंकड़ों के मुताबिक वर्ष 2006-07 से 2007-08 के बीच ग्रामीण इलाकों में प्रति व्यक्ति ग्राहक खर्च में 2।2 फीसदी की वृद्धि हुई है, जबकि शहरों में यह बढ़ोतरी 5.4 फीसदी की रही है। शहरों में केवल 62 फीसदी घरों में ही रसोई गैस पर खाना पकाया जा रहा है। वहीं 20 फीसदी शहरी आबादी लकड़ी या उपले का उपयोग कर रही है। इस मामले में गांवों में तो स्थिति और भी खराब है। वर्ष 2007-08 तक केवल नौ फीसदी ग्रामीण आबादी को ही एलपीजी सुविधा मिली हुई थी। रोशनी के लिए 39 फीसदी ग्रामीण परिवार अभी भी मिट्टी तेल (किरोसिन) पर निर्भर हैं।

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