Friday, October 15, 2010

ऐसी आजादी के क्या मायने?

हिंदुस्तान की आजादी से पहले विंस्टन चर्चिल ने कहा था- आजादी मिलने पर हिंदुस्तान के नेता निकम्मे, घूसखोर और लुटेरे साबित होंगे। जुबान के मीठे और दिल के काले होंगे। जनता को लड़ाएंगे तथा एक दिन ये देश भंवर में फंसकर रह जाएगा। हवा को छोड़ हर चीज पर टैक्स होगा। उस अंग्रेज ने कितनी सही बात कही थी इसके लिए किसी प्रमाण की जरूरत नहीं है। अफसोस सिर्फ इसी बात का है कि जो देश 200 से साल से ज्यादा गुलाम रहा हो, करोड़ों लोगों ने आजादी के लिए कुर्बानी दी हो,उस देश को करप्ट नेताओं ने 62 साल में ही सबसे करप्ट देशों में से एक बना डाला। आए दिन नेताओं और उनके रिश्तेदारों के करप्शन और घूसखोरी के सच्चे किस्सों ने राजनीति और लोकतंत्र के मायने ही बदल दिए हैं। ताजा मामला बूटा सिंह और उनके खानदान का है। इसे दुखद ही कहा जाएगा कि एक आम इंसान केवल शक की बिना पर जेल काटने को मजबूर हो जाता है लेकिन राजनेता और उनके नातेदार रंगे हाथ पकड़े जाने पर भी राजनीति तथा पावर का इस्तेमाल कर छूट जाते हैं। कौन नहीं जानता कि 40 साल से बूटा सिंह के दामन पर क्या-क्या दाग लगे पर राजनीति की माया-ऐसे चेहरे हमेशा सत्ता की आंच पर चाश्नी पकाते रहते हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि आजादी के बाद देश ने कई क्षेत्रों में बेथाह तरक्की की है लेकिन इस कड़वे सच से भी कौन इंकार कर सकता है कि देश की आजादी के बाद नेता मालामाल होते चले और जनता कंगाल। 71 में गरीबी हटाओ का नारा लगा था पर किसकी गरीबी हटी? जनता की या घूसखोर नेताओं और अफसरों की? सबके सामने है। राजनीति जन सेवा की बजाय धंधा बनकर रह गई है। हर बार राज्यों से लेकर संसद तक ना जाने कितने दागी, घूसखोर और हत्यारे अपनी डुगडुगी पीटते नजर आते हैं। जीतने को हर हथकंडा अपनाते हैं। दो हाथों से पैसा लुटाते हैं और फिर हजार हाथों से कमाते हैं। करप्शन एक ऐसा चक्रव्यूह बन गया है जहां आम आदमी भी चकरघिन्नी की तरह चक्कर खा रहा है और ये देश भी, लाख टके का सवाल यही है कि हर बार दागी जनसेवकों की संख्या बढ़ती ही क्यों जा रही है? अगर सब कुछ ठीक-ठाक है तो फिर इस देश में हर साल हजारों लोग भूख से क्यों मरते आ रहे हैं? क्या यह लोकतंत्र के लिए शर्मनाक नहीं है? इन गरीबों और किसानों के लिए फिर लोकतंत्र के क्या मायने? ऐसी आजादी के क्या मायने? अगर सब कुछ ठीक है तो फिर इस बात का जवाब कौन देगा कि 179 देशों में से 84 हमसे ज्यादा ईमानदार क्यों हैं? सिंगापुर पहले नंबर पर क्यों है और फिनलैंड, बोस्तवाना जैसे देश हमसे ईमानदार क्यों हैं? आखिर क्यों इस देश में ज्यादातर काम बिना घूस के नहीं होते? क्यों किसी को दाम बिना घूस के नहीं मिलते? क्यों पब्लिक लूट का यह गोरखधंधा 62 साल से बिना रोक-टोक के जारी है? क्यों हर साल बस 11 सरकारी महकमें 21 हजार करोड़ से ज्यादा की रिश्वतखोरी डकार जाते हैं? क्यों दुनिया के सब देशों से ज्यादा नेताओं-अफसरों और दलालों की कमाई का 70 लाख करोड़ से ज्यादा काला धन स्विस बैंक में जमा है? पता नहीं- कौन-कौन,कहां-कहां, किस-किस तरह हर पल घूस, घोटालों का ताना-बाना बुनता रहता है? आखिर क्यों? कब तक? यह रोग आज का नहीं है। 1937 में ही महात्मा गांधी ने करप्शन के खिलाफ बिगुल बजाया था। उनका मानना था कि यह दीमक की तरह देश को चाट जाता है। सामाजिक क्रांति पर जोर दिया था। लेकिन नेताओं ने आजादी मिलते ही इसे बिसरा दिया। 1948 में जीप घोटाला। लंदन में उच्चायुक्त वीके कृष्णन मेनन इसमें फंसे। 1955 में फाइल बंद। मेनन नेहरू मंत्रिमंडल में आ गए और सेना प्रमुख थिम्मैया नप गए। हमने खामियाजा 1962 में चीन के साथ जंग में झेला। 51 में एडीगोरवाला ने रिपोर्ट सौंपी-नेहरू कैबिनेट के कई मंत्री और ज्यादातर अफसर करप्ट हैं। रिपोर्ट रद्दी में गई। 51 में मुदगल केस, 57-58 में मुंदड़ा डील, 63 में मालवीय-सिराजुद्दीन स्कैंडल, 63 में ही प्रताप सिंह कैरो केस इतने उछले फिर भी किसी मंत्री या मुख्यमंत्री का सरकारी स्तर पर कुछ नहीं बिगड़ा और ना ही किसी प्रधानमंत्री ने इस्तीफा दिया। संथानाम कमेटी ने करप्शन पर ६४ ्में रिपोर्ट सौंपी। उसमें साफ-साफ लिखा था कि 16 साल से देश के कुछ मंत्री खुलेआम जनता का पैसा लूट रहे हैं। घूस खा रहे हैं। कुछ नहीं हुआ। प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के राज में जिस तरह ये रोग फैला, वह इंदिरा राज में और फलता-फूलता गया। वे पीएम भी थीं और पार्टी अध्यक्ष भी,नागरवाला को 60 लाख देने के वास्ते स्टेट बैंक में टेलीफोन करने का केस हो या फिर फेयरफैक्स, एचबीजे पाइपलाइन और एचडीडब्लू सबमेरिन डील का मामला हो। राजीव गांधी के समय में बोफोर्स केस को कौन भूल सकता है? नरसिम्हा राव के समय में 90 में 2500 करोड़ की एयरबस खरीद का केस हो या 92 में हर्षद मेहता का शेयर घोटाला। इसके अलावा गोल्ड स्टार स्टील विवाद,सरकार बचाने को झारखंड मुक्ति मोरचा को हवाला से 65 करोड़ देने का केस हो या फिर 96 का यूरिया घोटाला , राजनेताओं-अफसरों और दलालों की तिकड़ी देश को चूना लगाती रही। 95 में एन एन वोहरा की रिपोर्ट आयी- देश में अपराधी गेंग, करप्ट नेताओं और अफसरों, ड्रग माफियाओं, हथियार सौदागरों की मिली-जुली समानातंर सरकार चल रही है। इनके इंटरनेशनल लिंक हैं। पर रिपोर्ट फिर रद्दी में। अगर कुछ ना बिगड़ने का डर हो तो फिर कोई क्यों ना बहती गंगा में हाथ धोए। ना डर था और ना ही शर्म- नतीजा घूसखोर नेताओं की बाढ़ आ गई। चाहे चारा घोटाला हो या फिर तहलका कांड या तमाम स्टिंग आपरेशन में नंगे नजर आने वाले नेता। घूस की धारा और गहरी तथा चौड़ी होती गई। विधानपरिषद हो विधानसभा या फिर संसद हर चुनाव में किस तरह पैसा बहाया जाता है, एक-एक वोट खरीदा जाता है उससे ही ये एहसास लगाया जा सकता है कि चुने जाने पर ये नेता कैसे कमाते होंगे? वीपी सिंह और चंद्रशेखर सरकार के पतन की कहानी और कारण सबको पता हैं। किस तरह नरसिम्हा राव ने 94 में तेलुगू देशम को तोड़कर, शिबु सोरेन,अजित सिंह, शंकर सिंह बाघेला को जोड़कर अपनी सरकार बचाई। कल्याण सिंह ने भी यूपी में यही सीन दोहराया। हरियाणा का किस्सा कौन भूल सकता है? पूरी पार्टी ही बदल गई। इसी बार संसद का माला ले लीजिए-खुलेआम नोट लहराए गए। किसी का कुछ नहीं बिगड़ा। हाल तक झारखंड के सीएम और उनके तीन मंत्री काली कमाई की जलालत झेल रहे हैं। 2008 में वाशिंगटन पोस्ट ने खबर छापी थी कि हिंदुस्तान के 540 सांसदों में से एक चौथाई से ज्यादा दागी हैं। यूपी की मुख्यमंत्री हों या किसी भी राज्य के नए-पुराने नेता ज्यादातर के दामन पर करप्शन के छींटे हैं। हकीकत यह भी है कि देश की अदालतें नेताओं के मामलों को निपटाने में ही लगी रहती हैं। पहली बात तो कोई मामला जल्दी निपटता नहीं। अगर एक खत्म होता है तो एक दर्जन सामने आ जाते हैं। नेताओं-अफसरों-दलालों और घूसखोर सरकारी कर्मचारियों के किस्सों की लिस्ट इतनी लंबी है कि गुलामी का इतिहास इसके सामने छोटा पड़ जाएगा। सवाल यही पैदा होता है कि आखिर कोई नैतिकता इनमें है भी या नहीं? हैरत इस बात की है कि पाकिस्तान और बंगलादेश जैसे पिद्दी से देश करप्शन के खिलाफ हमसे बेहतर कर रहे हैं। हमारे यहां हर सरकारी महकमे को यह लाइलाज रोग अपनी जद में ले चुका है। कहावत यही पड़ गई है कि जो नहीं ले पाया वही ईमानदार बाकी सब...। 2005 की सीएमएस रिपोर्ट के मुताबिक 11सरकारी महकमों में 21 हजार करोड़ से ज्यादा का एक साल में लेन-देन हुआ। 2007 की रिपोर्ट के मुताबिक देश का कोई ऐसा महकमा नहीं जहां घूसखोरी ना पनप रही हो। चाहे वो बैंक हों या सेना। वाजिब काम भी घूस से। नेताओं, अफसरों से जनता बचती है तो बाबूओं के चंगुल से नहीं निकल पाती। एक जमाने में बिहार में गरीबों का 80 फीसदी राशन चुरा लिया जाता था। पशुओं के चारे तक का धन भी नेता डकार गए। इसी तरह देश के हर राज्य में गांव से शहर तक हर दफ्तर में माफिया राज है। सड़क से शिक्षा तक, पढ़ाई से नौकरी तक, रोटी से कपड़े तक, मकान से दुकान तक हर जगह करप्शन। देश की आधी से ज्यादा आबादी घूस देने का स्वाद चख चुकी है। यह रिपोर्ट का कड़वा सार है। धंधा करने वाले पीछे नहीं हैं। घूस दो-काम कराओ और दौलत कमाओ। इसी तर्ज से वे मिनटों में काम कराते हैं। सही काम के लिए बरसों चक्कर काटते रहो-कोई फायदा नहीं। यही कारण है कि इस देश में उद्योगपतियों की दौलत बढ़ती जा रही है। हैरत इस बात की •भी है कि हम किसी लड़की को पब में जाते,ड्रिंक लेते, डांस करते बर्दाश्त नहीं कर सकते,किसी लड़की के कम कपड़े बर्दाश्त नहीं करते, ट्रेफिक सिग्नल पर लाल बत्ती को नहीं झेल पाते, किसी भी लाइन को नहीं झेल पाते,अपने वेतन और दूसरी सुविधाओं पर समझौता नहीं करते,तमाम चीजों पर संयम नहीं दर्शाते लेकिन जब देश की बारी आती है तो चुप्पी साध जाते हैं। आखिर उस समय हमारा जोश कहां चला जाता है-जब चुनावों में राजनीतिक दल हत्यारों, बलात्कारियों और घूसखोरों को टिकट देते हैं, जब राजनीतिक दल वोट के लिए धार्मिक उन्माद भड़काते हैं, जब घूसखोर और घपलेबाज राजनेताओं के केस अदालतों में बरसों लटके रहते हैं, जब गद्दी के लालची चुनाव के बाद बैमेल गठजोड़ कर सारी जनता को ठगते हैं, जब राजनीतिक दल धन और गन के सहारे जन को वोट देने को विवश करते हैं, जब आवाज उठाने वालों की बोलती बंद कर दी जाती है, जब नेता और उनके कारिंदे इज्जत से खेलते हैं, जब अफसर खुले आम जनता के धन को लूटते हैं, जब सरेआम चौराहों पर बहू-बेटियों को छेड़ा जाता है, जब बिना घूस के ना दाखिला मिलता,ना रोजगार और ना ही कोई व्यापार हो पाता। आखिर ऐसे तमाम अनगिनत मौकों पर जब जन आवाज उठनी चाहिए तब हम कन्नी क्यों काट लेते हैं? हम खामोश क्यों रहते हैं? हम इंडिपेंडेंट हैं पर ऐसी व्यवस्था पर डिपेंडेंट क्यों होना चाहते हैं? आखिर कब चेतेंगे हम? ऐसे में क्या हम करप्ट नहीं हुए? सरकार को चेतना चाहिए पर जनचेतना के बिना कुछ नहीं होने वाला। जब तक इस आवाज का साज नहीं बजेगा तब तक यूं ही करप्ट लोग लोकतंत्र का बेसुरा साज बजाते रहेंगे। इस देश को विकास की नहीं विनाश की राह पर ले जाते रहेंगे। हम फिर वहीं होंगे जहां आजादी के लिए करोड़ों लोगों को कुर्बानी देनी पड़ी थी। सबसे बड़ा सवाल यह भी है कि आखिर क्यों सारे दल, नेता इस पर मुंह नहीं खोलते तथा इस चुप्पी को जनता नहीं समझती? आखिर क्यों? इस क्यों का जवाब ढूंढना ही होाग। सच्ची आजादी तब मिलेगी जब हर हाथ को काम, हर पेट को रोटी और हर सिर पर छत होगी। दिल्ली और देश की राजधानियों से चलने वाला विकास का एक रुपया जनता तथा विकास पर खर्च होगा। किसी काम के वास्ते घूस नहीं देनी होगी। वाजिब रास्ते से वाजिब काम। देश हमारा है-पैसा हमारा है-उस पर डाका डालने वालों को सबक सिखाने का वक्त आ गया है।
-देशपाल सिंह पंवार

1 comment:

  1. आजादी के सही मायने तो भ्रष्ट नेताओं और अफसरों के लिए ही है :)

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